सृजन समय

सोमवार, 3 मई 2010

कहानी संग्रह 'नज़रिया'का लोकार्पण



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मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य अकादमी व्दारा प्रकाशन योजना के अन्तर्गत प्रकाशित डा अनिता सिंह चौहान के कहानी संग्रह ``नज़रिया´´ का लोकार्पण दिनांक 27 अप्रैल 2010 को हिन्दी साहित्य सम्मेलन भवन,पी एण्ड टी चौराहा,भोपाल के सभागार में एक गरिमामय कार्यक्रम में किया गया । कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रो.त्रिभुवन दास शुक्ल,निदेशक,मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य अकादमी,भोपाल एवं अध्यक्षता डा. स्वाति चान्दोलकर,निदेशक,राज्य संसाधन केन्द्र,भोपाल ने की ।
डा मोहन तिवारी आनन्द,अध्यक्ष,मप्र तुलसी साहित्य अकादमी,भोपाल ने कार्यक्रम की रूपरेखा एवं डा अनितासिंह चौहान के समग्र लेखन पर प्रकाश डाला ।
डा अनितासिंह चौहान ने लोकार्पित कृति ``नज़रिया´´ से ``अपना-अपना आत्मसम्मान´´ कहानी का वाचन किया,जिस पर प्रसिद्ध कहानीकार श्री मुकेश वर्मा,,श्री लक्षीनारायण पयोधि एवं श्री संजय राठौर व्दारा समीक्षात्मक वक्तव्य दिए गए । मुकेश वर्मा ने कहा कि समग्र परिदृश्य में लगभग पच्चीस विषय होते है,जिस पर आज तक रचनाकारों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से रचनाओं का सृजन किया । डा अनिता सिंह चौहान के इस संग्रह में उनके व्दारा श्रेष्ठ कहानियों का सृजन उनके समग्र सकारात्मक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है। पयोधि ने डा अनितासिंह चौहान को आज की युवा पीढ़ी की श्रेष्ठ रचनाकार के रूप में परिचित कराया ।
प्रो,त्रिभुवन दास शुक्ल,निदेशक,मप्र हिन्दी साहित्य अकादमी एवं डा स्वाति चान्दोलकर,निदेशक,राज्य संसाधन केन्द्र,भोपाल ने डा अनिता सिंह चौहान के कहानी संग्रह``नज़रिया´´ पर अपने सारगभित वक्तव्य दिए ।
कार्यक्रम का संचालन,श्री चन्द्रभान राही,सचिव,मप्र तुलसी साहित्य आकदमी तथा कार्यक्रम में उपस्थित समस्त आगन्तुक साहित्यकारों का आभार डा शंकर सोनाने,उपाध्यक्ष,मप्र तुलसी साहित्य अकादमी,भोपाल व्दारा किया गया ।

अपना अपना आत्मसम्मान ..कहानी..डा अनिता सिंह चौहान

चौक बाजार में चाय की दुकान पर रोज की तरह ही भीड़ लगी हुई है ,चाय की यह दुकान चाय के शौकीनों को शाम से ही अपनी तरफ खींचने लगती है । हितेन्द्र ने चुपचाप चाय पी और सिर झुकाये मन्थर कदमों से अपने थके हुये शरीर को घर की तरफ घसीटने लगा । आंखों में गहरी निराशा लिये उसे जाता देख एक दो आवाजें व्यंगात्मक ढंग से उछलीं-`` आजकल तो जिसे देखो वही डिप्टी कलेक्टरी के ख्वाब देख रहा है...हां भई घर में नहीं खाने अम्मा चली भुनाने...और जोर का अट्टाहस चारो तरफ बिखर गया । हितेन्द्र ने सब सुना और कुछ जवाब न देकर वहां से निकल लिया । लोक सेवा आयोग की मुख्य परीक्षा का आज परिणाम आया है । पिछली बार की तरह इस बार भी हितेन्द्र पास नहीं हुआ । यह आवाजें उसी गूंज की प्रतिध्वनियां बनकर उभरी हैं । लोगों का क्या है और वह भी मध्यम वर्ग,यह वर्ग ऐसा है,जो सदियों पुरानी सड़ी गली मान्यताओं,परम्परराओं को निभाने का सफल ढोंग करता है । समाज का ठेकेदार भी यही वर्ग बना हुआ है । पुरानी मान्यता कि बड़े बाप का बेटा ही बड़ा बन सकता है । यह धारणा मध्यम वर्ग में इतनी गहराई तक पैर जमाये हुये है कि जब भी कोई युवक इस धारणा को तोड़ने का साहस या प्रयास करता है तो उसे प्रोत्साहित करने के बजाय उसका उपहास उड़ाने में लोग पीछे नही रहते,लेकिन यही वर्ग एसा भी है जो समय आने पर ,कुचले जाने पर भी उठ खड़ा होता है इसके अटूट हिम्मत है । घिसट घिसट कर ही सही मगर अपनी मंजिल पर पहुंचना इस वर्ग को ही आता है । हितेन्द्र भी एक ऐसा युवक है जो पढ़ लिखकर कहीं क्लकीZ करने की बजाय डिप्टी कलेक्टर बनने के लिये कमर कसकर जुटा हुआ है । यह दूसरा साल है उसका और इस बार उसकी निराशा दुगनी हो गई है। मगर वह हार नहीं मानेगा, लोगों के तानों से घबरायेगा नहीं ,वह फिर से मेहनत करेगा और लोगों ने देखा कि उसके कोठरीनुमा कमरे में बल्व की धुंधली रोशनी फिर देर रात तक होती रहती और फिर ढाई -तीन बजे उसके पिता बाबू कामताप्रसाद अपने घिसे हुये स्लीपर घसीटते हुये आते । बेटे को किताबों के पहाड़ के बीच घिरा देख नम आंखों से उसके सिर पर धीरे से हाथ फेरते और कहते -`` बेटा...बहुत रात हो गई है, अब तू जरा सो ले, फिर सुबह पढ़़ लेना...चल उठ।`` सिलसिला चलता रहा और आखिरकार इम्तहान का दिन आया । हितेन्द्र मन में आकांक्षाओं का गुबार लिये परीक्षा हाल में पहुंचा। थोड़ा आशंकित थोड़ा विश्वास से भरा। पता नहीं इस बार पर्चा कैसा आयेगा । फिर मन को ढांढस बंधाया कि जो भी हो इस साल उसका आखिरी अवसर है । अब वह इस अवसर को गंवायेगा नही और हर साल की तरह प्रारंभिक परीक्षा में पास होने के बाद मुख्य परीक्षा में असफल नहीं होगा । सारे आत्मविश्वास को बटोर कर पेपर को हल करने में जुट गया। चलो बार तो पेपर अच्छे हुये हैं । लोगों ने फिर अपने मुंह खोले और कई लोग तो बाबू कामताप्रसाद को डिप्टी साहब के पिता जी से संबोधित करते । हार कर उन्होंने पिछली सड़क का रास्ता पकड़ लिया था लेकिन इस बार हितेन्द्र की मेहनत रंग लाई और सफल परीक्षार्थियों में उसका भी नंबर लग गया । मगर अभी तो मुख्य परीक्षा का ही परिणाम था । साक्षात्कार तो अभी बाकी ही था । लोगों की उम्मीदें फिर परवान चढ़ीं-`` पास होने भर से क्या होता है। असली मुकाबला तो अब होगा, तीन तीन साल तक किताबों का घोंटा लगा । पास होने भर से क्या होगा। साक्षात्कार के समय अच्छे अच्छे लोगों की हिम्मत जवाब दे जाती है । बड़े बड़े अफसरों के बच्चे तक रह जाते हैं और फिर यह तो एक मामूली क्लर्क का बेटा है । यह क्या इन्टरव्यू में निकलेगा र्षोर्षो`` लेकिन इस बार शायद किस्मत भी हितेन्द्र पर मेहरबान थी और फिर एक दिन हितेन्द्र अपना बोरिया बिस्तर बांध कर ट्रेनिंग पर चल ही दिया । मां ने कांपते हाथों से उसके माथे पर तिलक लगाया और बूढ़े पिता ने नम आंखों से उसे आशीZवाद दिया । आसपास के घरों में सन्नाटा छाया हुआ था। ,हर घर से मानो मन की जलन के साथ गर्म हवा के थपेड़े बाहर आ रहे थे । उच्छवाशों के साथ पड़ोसियों के मन धधक रहे थे । आखिरकार एक क्र्लक का बेटा डिप्टी कलेक्टर बन ही गया और उनके बच्चे यहीं जूते घिसेगें। एकाध घर की खिड़की आधी खुली थी, जो किसी आंख की तरह बाहर का नजारा ले रही थी । जाने के पहले मुझसे विदा लेने आया था क्योंकि सिर्फ एक मैं ही था, जिसने ओरों की तरह उसका कभी मजाक नही बनाया था । उसे कभी हतोत्साहित नहीं किया था बल्कि जब भी वह लोगों की व्यंगात्मक नज़रों से घायल होकर मेरे पास आता तो मैं उसका उत्साह बढ़ाता और कहता-`` अरे छोड़ यार...। तू लोगों की बातों पर क्यों जाता है ! तू एक दिन जरूर सफल होगा । देखना मेरा मन कहता है । मेहनत कभी बेकार नहीं जाती । तुझे मुझसे जो मदद चाहिये बेहिचक कह दे...मेरे से जितना होगा मैं करूंगा।``
मेरी ऐसी बातें सुन वह नये उत्साह से भर जाता और नये सिरे से अपना मनोबल जुटाकर पढ़ाई में जुट जाता । उसकी वही मेहनत रंग लाई जिसके कारण वह आज मुझसे मिलने आया था। ,मैं बहुत खुश था और उससे गले मिलकर उसकी सफलता की बधाई दी । हितेन्द्र भावविभोर होकर बोला-`` सुकान्त...मेरी सफलता में तेरा बहुत बड़ा योगदान रहा है । जब भी में निराश हुआ हूं ,तुमने हमेशा मेरा उत्साह बढ़ाया है वर्ना लोग तो ...।` `
`` छोड़ भी! लोगों का क्या,उन्हें तो किसी की तरक्की अच्छी नहीं लगती । तू बता, डिप्टी कलेक्टर बन मुझे भूल तो नहीं जायेगा।`` मजाकिया स्वर में मैंने कहा।
`` कैसी बातें करता है ऐसा भी कभी हो सकता है । अच्छा चलता हूं,ट्रेन का वक्त हो रहा है।`` वह चला गया मैं उसे जाता देखता रहा । मन में खुशी थी कि चलो उसका सपना तो पूरा हुआ। मगर फिर बाद में उसका आना हो ही नहीं पाया ट्रेनिंग पूरी होते ही उसकी पोस्टिंग अमीरपुर में हो गई । बस पोस्टिंग के पहले ही मुझसे मिलने आया था और मुझे बार-बार अपने घर यानी अमीर पुर आने को कहता रहा था । समय गुजरता रहा और समय की रेत पर उसके कदमों के निशान भी धुंधले होते गये । एक बार मुझे टूर पर राजनगर जाना था । तभी मुझे नरेश ने बताया कि आजकल हितेन्द्र की पोस्टिंग भी वही है । मैं खुश हुआ सोचा चलो टूर के बहाने उससे भी मुलाकात हो जायेगी । राजनगर उसके ऑफिस पहुंचकर अपने नाम की पर्ची चपरासी के हाथ उसके कक्ष में भिजवा दी । करीब एक घंटे के इन्तजार के बाद हितेन्द्र ने मुझे बुलावाया । मैं अन्दर गया तो हितेन्द्र फोन पर किसी से बात कर रहा था । उस वक्त के हितेन्द्र और आज के हितेन्द्र मे जमीन आसमान का अन्तर नज़र आ रहा था । काफी मोटा हो गया था और साथ ही चेहरे पर एक रोब झलक रहा था जो ऊंची नौकरी वालो के चेहरे पर अनायास ही उभर आता है । आवाज भी काफी भारी सी लग रही थी। मेरी तरफ एक हल्की सी नज़र फेंक वह बातें करने में मशगूल हो गया । मुझे हल्का सा झटका लगा ,उसके इस व्यवहार से । मुझे तो विश्वास था कि वह मुझे देखकर खुश होगा और तपाक से मिलेगा मगर यह तो । फिर सोचा यहां उसकी साहबी का रोब तो रहेगा ही । घर लेकर जायेगा तब बच्च्ूा से बात खुलकर हो सकेगी । मैं उसके रिसीवर रखने का इन्तजार करने लगा । करीब पांच मिनिट बाद उसने रिसीवर नीचे रखा। एक गहरी सांस लेकर बोला-`` यस, कैसे आना हुआ ``
हकबकाकर मैने गले के नीचे थूक गुटका और धीमी आवाज में कहा-`` क्या तुमने...आ आपने मुझे पहचाना नहीं ``
`` ओ...यस ,यस पहचाना है ना,सुकान्त ,यार माफ करना इतने सालो बाद तुमसे मिल रहा हूं । इसी से थोड़ा वक्त लगा पहचानने में ।``कुर्सी पर संभलकर बैठते हुये उसकी आवाज में पहचान की झलक उभरी । उसने हाथ मिलाने के लिये बढ़ाया आंखों में भी पहचान के भाव देख अब जाकर मुझे सहज लगा ।
`` कैसे आयेर्षोर्षो मेरा मतलब इस शहर में कैसे आना हुआ``
`` बस कुछ नहीं! मेरा यहां का टूर था,नरेश ने बताया था कि आजकल तुम यहां पोस्टेड हो सो मिलने चला आया।``
`` अच्छा,और तुम्हारी नौकरी अभी भी वही है क्या`
`` हां,बस प्रमोशन हो गया है जिसमें टूर ज्यादा रहते हैं।``
`` ओ! चलो अच्छा है,इसी बहाने तुम राजनगर तो आये अब दो चार दिन तो रूकोगे ना।`` आवाज मे हल्की खुशी की गूंज सुन मुझे फिर से वहीं पुराना हितेन्द्र दिखा ।
`` हां,देखता हूं और सुनाओ भाभी कैसी हैं,बच्चे वच्चे `
`` सब ठीक हैं,बस आधा घंटे इन्तजार करो,फिर साथ ही घर चलते हैं।`` फोन की घंटी सुन उसकी तरफ हाथ बढ़ाते हुये उसने चपरासी के लिये घंटी बजाई और दो काफी लाने को बोला । फोन पर बात पूरी कर मेरी तरफ देखते हुये अफसोस भरे स्वर में कहा -`` यार, अभी तो मैं घर नहीं जा सकूंगा,कुछ काम आ गया है,।``
`` कोई बात नहीं ! तुम अपना काम करो मैं चलता हूं।``
`` अरे सुनो ना,आज रात को एक पार्टी दे रहा हूं अपनी शादी की सालगिरह की । राजविलास पैलेस में,तुम भी शाम को वहीं आ जाओ।``
`` अच्छा आज तुम्हारी एनिवर्सरी है,बधाई हो ,पर मैं...।``
`` अब क्या मैं मैं लगा रहे हो ,वैसे तो कभी समय ही नहीं मिला कि तुमसे मिल सकूं पर आज इस समय यहां हो तो अब पार्टी में आना ही होगा,।`` कुछ सोचते हुये मेज की दराज से एक कार्ड निकाल कर उसने मुझे थमा दिया -`` ये लो कार्ड, इसके बगैर वहां एन्ट्री नहीं मिलेगी, । फाइव स्टार होटल है ना इसलिये,ठीक है मैं शाम को वहीं मिलूंगा,आना जरूर,।``अनुरोध भरे स्वर में बोलते हुये उसने फिर घंटी बजाकर चपरासी को बुलाया ओर अगले मुलाकाती को भेजने को कहा । मैं खुश था कि वक्त और पद की आंधी उसके जीवन से पुराने रिश्तों के पत्तों को उड़ा नहीं सकी है और वह आज भी वही हितेन्द्र है जो बरसों पहले था ।
``ठीक है मैं शाम को मिलता हूं, आखिर भाभी से भी तो मिलना है। उन्हें मैने अभी तक देखा कहां है ।´´ उठने के लिये उतावला हो मैं चलने को तैयार हुआ। उसके इस आत्मीय व्यवहार से मेरा मन खुश हो गया था और मैं उसके परिवार से मिलने को उत्सुक हो गया ।
`` अच्छा ठीक है,।`` मैं लोट आया ।होटल के कमरे में पड़े-पड़े मैं हितेन्द्र के बारे में ही सोचता रहा । कितनी तरक्की कर ली है जिन्दगी में उसने । सरकारी गाड़ी,सरकारी बंगला और वदीZवाला चपरासी, ड्राईवर सब उसकी शान बढ़ा रहे हैं और मैं...वहीं का वहीं ,जो दस साल पहले था। मुझे लगा कि कोल्हू का बैल बन कर रह गया हूं । जो चलता तो निरन्तर है लेकिन घूमर फिर कर रहता वहीं का वहीं है । खैर छोड़ो दोस्त की तरक्की में खुश रहना चाहिये सिर को झटककर विचारों को परे किया और सो गया । जब नीन्द खुली तो धूप अपने पंख समेट चुकी थी और शाम का धुंधलका गहराने लगा था । घड़ी देखी तो साढ़े छ: बजे थे । पलंग से उठकर बाथरूम में जा हाथ मुंह धोये और कमरे में वापस आ अटेची खोल कर खड़ा हो गया । सोचने लगा कि कौन से कपड़े पहने जायें जो डिप्टी कलेक्टर की पार्टी के अनुरूप हों । अपनी समझ में मैने अपना सबसे अच्छा सूट निकाला और पहनकर तैयार हुआ । बाहर निकलकर ऑटो किया। बाजार में पहुंचकर ध्यान आया कि हितेन्द्र की शादी की सालगिरह के मौके पर उसे कोई उपहार तो देना चाहिये क्या दूं आधा घंटा इसी उधेड़बुन में निकल गया फिर एक दुकान पर एक शोपीस पसन्द आया जिसमें घड़ी भी थी पूरे साढ़े छ: सौ रूपये का । मन तो कसका लेकिन उसके पद का ख्याल आते ही शान्त हो गया। आखिर उसकी शान के अनुरूप ही कुछ देना पड़ेगा कोई और होता तो उसे कम कीमत का तोहफा भी दिया जा सकता था । घड़ी की तरफ नज़र गई तो वह पूरे आठ बजा रही थी । ऑटो वाले से राजविलास पैलेस चलने की बोल । मैं पुन: आटो में बैठ गया । उसने पौने नो बजे मुझे वहां पहुंचा दिया। होटल देख मैं दंग रह गया । वैसे भी इतने बड़े आलीशान होटल में जाने का मेरा पहला ही मौका था। रंगबिंरगी बिजलियों से जगमगाता वह महल ही तो था। एक मन किया वापस लौट चलूं, फिर साहस जुटाकर जेब में हाथ डाला और कार्ड निकाला । धीमे कदमों से मैं उस होटल के प्रवेश द्वार पर पहुंचा । वदीZधारी,बड़ी बड़ी मूंछों वाले लंबे तगड़े दरबान ने मुझे ऐसे घूरा । मानो कोई फटीचर होटल में घुसने के लिये चला आ रहा हो । घूरता भी क्यों नहीं उसका वास्ता दिन रात बड़े बड़े रईसों,ऑफिसरों और नेताओं से पड़ता था । मुझ जैसे छोटे ऑफिसर को वह एक नज़र में पहचान सकता था। मैने उसके पास पहुंचकर कार्ड दिखाया । उसने एक पल मेरा चेहरा देखा । माथे तक हाथ ले जाकर मुझे सलाम किया और शीशे का बड़ा सा दरवाजा मेरे लिये खोल दिया। अन्दर कदम रखते ही ऐसा लगा कि यदि स्वर्ग होता तो वह ऐसा ही होता होगा। कीमती कालीन,बड़े-बड़े झाड़ फानूस, जिनमें सैकड़ों बिजली के बल्व अपनी अलौकिक छटा बिखेर रहे थे। कदम कदम पर बड़ी-बड़ी सुनहरे रंग की आदमकद मूर्तियां। गमले जिनमे तरह तरह के देशी विदेशी फूल मुस्कराकर आने वालों का स्वागत कर रहे थे। बुर्राक सफेद वदीZ में सजा होटल का स्टाफ हर आने जाने वाले का सिर झुकाकर स्वागत कर रहे थे। मेरी हीन भावना बढ़ती गई और पार्टी हॉल अन्दर तो वह अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई। लकदक कीमती कपड़ों में सजे भांति-भांति के स्त्री-पुरूष अपने-अपने साथियों के साथ इधर-उधर बिखरे हुये खडें
धीमी आवाज में बातें कर रहे थे ।मेरी नज़रें हितेन्द्र को ढूंढ़ने लगीं । मैं सोच रहा था कि अब आ ही गया हूं, तो यह उपहार उसे थमा जल्दी से इस जगह से भाग जाऊं । देखा तो वह स्टेजनुमा जगह पर कुर्सियों पर बैठा सबकी बधाईयां और उपहारें के बड़े-बड़े पैकेट मुस्कुराते हुये ले रहा था । उसके साथ ही उसकी पित्न खड़ी हुई थी । लंबी,खूबसूरत ,कंधे तक बाल कटे ,कीमती साड़ी में लिपटी वह वाकई में डिप्टी कलेक्टर की बीवी बनने लायक ही थी । कानों में हीरों के चमकते बुन्दे, एक हाथ में ब्रेसलेट और दूसरे हाथ में चमकती चूड़ियां...। वह तो गहनों की दुकान ही नज़र आ रही थी । चेहरे पर गर्व की जानी पहचानी परत जो बड़े बाप की बेटियों के चेहरे पर चढ़ी रहती है । मैं थोड़ा हिचका मगर, हितेन्द्र की मुस्कुराती सूरत ने मुझे हिम्मत दी । पास जाकर हंसते हुये मैने दोनों को बधाई दी और हाथ जोड़कर नमस्कार करते हुये कहा-`` नमस्ते भाभीजी, कैसी हैं आप ``
कटे बालों को झटका देते हुये उसने माथे पर शिकन डाल मुझे घूरा और मेरी बात को अनसुनी कर अपनी साड़ी संवारने लगी। हितेन्द्र ने यह सुना और मेरे चेहरे की तरफ मुखातिब हो हंसते हुये बोला-`` अरे,सुकान्त,ये क्या भाभी...भाभी कह रहे हो। इन्हें तो मिसिज हितेन्द्र या मेण्डम सुनने की आदत पड़ी हुई है । इसी से जरा...खैर तुम खाना जरूर खाकर जाना।´´ मैं अचकचाया सा उसे देखता रहा । उसकी बीवी ने इस नज़र से मुझे देखा और फिर नज़रे फेर लीं । मानो उसके सामने कोई मच्छर भुनभुना रहा हा। अपनी कोई जरूरत वहां न समझ मैं स्टेज से उतरने लगा । मन में अपमान की कई किरचें चुभ रही थीं । उतरकर वहीं कोने में खड़ा मैं इस व्यवहार को समझने की कोशिश कर रहा था ,तभी उसकी बीवी की धीमी आवाज आई -`` ये क्या आप इन छोटे लोगों को बुला लेते हैं र्षोर्षो देखते नहीं कितने बड़े-बड़े लोग मौजूद हैं और तुमने इस फटीचर को...।´´
`` धीरे बोलो,डार्लिंग,वो मेरा दोस्त ।``
`` व्हाट दोस्त र्षोर्षो आपके ऐसे दोस्त रहते हैं क्या
`` ओ नो ! वो तो ज़रा सी जान पहचान थी फिर मैने सोचा- बेचारे इन लोगों को फाइव स्टार में जाने या खाना खाने का मौका कहां मिलता होगा । इसी से मैने इसे बुला लिया कि यह भी खा लेगा । वर्ना ऐसे छोटे लोगों से मेरा क्या वास्ता।`` दबे स्वर में हितेन्द्र की आवाज आई ।ये सब बातें हो तो धीरे ही रहीं थी, मगर समीप के ही कोने में खड़े होने से मुझे साफ सुनाई दे रही थीं । मेरा दिमाग शून्य हो गया । कानो में सायं-सायं की गूंज के साथ सैंकड़ों हथोड़े पूरी ताकत से मेरे मन पर दनादन पड़ रहे थे । ये उस अपमान के हथोड़े थ,े जो हितेन्द्र की बीवी से ज्यादा खुद हितेन्द्र ने मारे थे । वह तो खैर अनजान थी लेकिन हितेन्द्र,वह तो उसी ज़मीन से उठ कर आया था, जिससे मैं आया था, बल्कि पुराने वक्त में तो वह मुझसे भी ज्यादा नीची जमीन पर खड़ा था । मुझे खेद इस बात का नहीं था कि उसने अपनी बीवी के सामने मुझे दोस्त तक नहीं स्वीकारा बल्कि इस बात का था कि वह अपने अतीत को भूल गया था । अतीत चाहे जितना भी गहरे में दबाया जाये कभी न कभी ,कहीं न कहीं उसके निशान उभर ही जाते हैं । अब मेरा वहां एक पल भी रूकना दुश्वार हो रहा था । भारी मन और भारी कदमों के साथ मैं तुरन्त वहां से निकलने को झटपटा रहा था । होंटल के दरवाजे से बाहर निकलकर ताजी हवा के झोंके मेरे सुलगते मन की दहक को शान्त करने का प्रयास कर रहे थे । ऑटो या टेक्सी की तलाश में मेरी नज़रें भटक रही थीं और सामने ही हितेन्द्र की डिप्टी कलेक्टर की तख्ती लगी सरकारी गाड़ी खड़ी थी । उसके पास दो ड्राइवर भी खड़े बातें कर रहे थे । मैं उन्हीं के थोड़ा समीप जा किसी वाहन की तलाश में खड़ा हो गया । अचानक कानो में उनकी बातचीत पड़ी -
`` लगता है आज तो एक दो बजे से पहले छुट्टी नहीं होती दिखाई देती भूख अलग लग रही है।´´
`` क्यों तुझे क्या,कलेक्टर साहब का ड्राइवर है तू अन्दर जाकर खाना खा के आ जा।``
`` खाना! यहां तो कभी उनके घर चाय नसीब नहीं होती। अरे ये बड़े लोग बस नाम के ही बड़े होते हैं । जब अपने बाप को खाना नहीं खिला सके तो मुझे क्या खिलायेगें। बस ड्यूटी बजवाने को चौबीसों घंटे तैयार रहो इनके लिये तो ...।´´ कड़वे स्वर में हितेन्द्र का ड्रायवर बोले जा रहा था । बाप शब्द सुनते ही मेरे कान खड़े हो गये। तो क्या कामताप्रसाद जी यहीं है हितेन्द्र के साथ । चलो एक काम तो अच्छा कररहा है वह । लेकिन ड्राईवर के शब्द तो किसी अच्छी बात की तरफ इशारा नहीं कर रहे थे । बड़े बड़े आफिसरों,नेताओं के घरेलू राज,बातें चपरासियों या ड्राईवरों को ही ज्यादा पता रहती हैं । मेरे मन की नदी मे कई विचार चक्कर काट रहे थे और मेरी मनस्थिति उनमें डूबती उतराती हुई किसी किनारे को तलाश रही थी । कामता प्रसाद जी के लिये मेरे मन में बड़ा आदर रहा है। एक इंसान के रूप में वह सदैव दूसरों के काम आये हैं। स्वयं मुझे जब भी उनकी सलाह या अन्य किसी तरह की जरूर पड़ी । उन्होंने हमेशा मेरा मार्गदर्शन व सहयोग किया है। रहा नहीं गया तो मैंने धीमी आवाज में पूछ ही लिया-`` क्यों भाई! बुरा ना मानो तो मैं तुमसे कुछ बात कर सकता हूं।´´ ड्राइवर सहम गया । चेहरे से ऐसा लगा मानो अपनी बात कह पछता रहा हो ।
`` माफ करना साहब, छोटा आदमी हूं । मैं भला क्या बात कर सकता हूं आपसे र्षोर्षो`` उसकी घबराहट समझ मैं आश्वस्त स्वर में बोला-`` गलत मत समझो,तुम्हारे साहब के पिता जी मुझे अच्छी तरह जानते हैं । मैं उन्हीं के शहर का हूं । इस शहर में किसी काम से आया था । अब वह यहीं हैं तो सोचा मिलता ही चलूं।´´
`` अरे साहब। `` मेरा चेहरा और आवाज सुन वह थोड़ा आश्वस्त हुआ। मेरी तरफ झुकता हुआ धीमी आवाज में बोला-`` अब साहब के पिता जी यहां कहां रहते हैं, आये थे रहने के लिये...।´´ उसकी हिचकिचाहट देख मैं समझ गया कि वह डर रहा है।
`` तो क्या मैं उनसे मिल सकता हूं।``
`` साहब! साहब! ``पैरों की तरफ झुककर ड्राईवर हाथ जोड़े ही बोला -
`` मैं क्या बताऊं, आप साहब को कुछ मत कहियेगा । वर्ना साहब मेरी खाल उधड़वा लेगेंं । बाल बच्चे वाला आदमी हूं । मेरी तो रोटी के भी लाले पड़ जायेगें।´´ रोटी आदमी को कितना दयनीय बना सकती है , यह आज साक्षात देख रहा था लेकिन कहीं न कहीं उसके मन में भी आघात था । आखिर छोटा ही सही इंसान तो वह भी था ही।
`` नहीं,नही,चिन्ता मत करो । तुम्हारे साहब से तो मुझे मिलना ही नहीं है । मैं तो कल सुबह की गाड़ी से ही अपने शहर चला जाऊंगा फिर मुझे इस शहर में दोबारा आना ही नही है।´´ मेरे आश्वासन की डोर थाम उसने इधर-उधर देख धीमी आवाज में कहा- `` साहब! अच्छा तो नहीं लग रहा अपने मालिक के बारे में बताते हुये। लेकिन साहब के पिता जी यहां नहीं बल्कि वहीं रहते हैं जहां के साहब हैं । पता तो मुझे पूरा नहंीं मालूम, हां, कुछ थाटीपुरा कर के मोहल्ला था । बस साहब मैं इतना ही बता सकता हूं । मुझपर दया करना आप वर्ना मैं तो बेमौत ही मारा जाऊंगा।´´ उसके शरीर में डर के मारे सिहरन दोड़ रही थी । मैं सुन्न दिमाग लिये उसे देखता रहा । थके कदमों से ऑटो रोक होटल की तरफ रवाना हो गया । रात भर ठीक से सो भी नहीं पाया । आज तीन दिन हो गये गाजीपुर लोटे हुये । इन तीन दिनों में मैंने लगभग तीस हजार बार ही हितेन्द्र को उसके इस अमानवीय व्यवहार के लिये कोसा होगा। आखिरकार जब रहा नहीं गया तो अपना पूरा साहस बटोर कर मैं कामताप्रसाद जी से मिलने चल दिया। मुझे वह दिन याद आ रहा था, जब कामताप्रसाद जी हितेन्द्र के साथ रहने को गये थे । चेहरे पर खुशी ,आंखों में चमक और युवाओं जैसा उत्साह उनके हाव भाव में झलक रहा था। आस पड़ोस के कुछ लोग भी उन्हे विदा करने आये थे। एक दो तो अपने बच्चों की नौकरी हितेन्द्र से लगवाने के लिये देने के लिये एप्लीकेशन तक ले आये थे । कामताप्रसाद जी का मकान तो किराये का था और पित्न बहुत पहले ही गुजर चुकी थी । सो अब बाकी जिन्दगी बेटे-बहू के साथ सुख से गुजारने के सपने लिये वह अपना पुराना मोहल्ला छोड़ कर जा रहे थे। लोग उनकी किस्मत पर ईष्र्या कर रहे थे । डिप्टी कलेक्टर के पिता के रूप में उनका कद अनायास ही बड़ा हो गया था। जब वे हितेन्द्र के पास रहने आये थे तो फिर दूसरी जगह क्यों रह रहे हैं। वो भी इतने बुढ़ापे में...। जब उनके पास न तो पैसा है न देखभाल करने वाला कोई और। छोटी सी नौकरी की छोटी सी पेंशन। बुढ़ापा तो वैसे ही छूटती जिन्दगी और बचे खुचे पैसे को पकड़े रहने पर विवश होता है फिर अकेलापन ! कितने असहाय होगेें कामता प्रसाद जी और हितेन्द्र ने उनके साथ ऐसा व्यवहार किया । लगता है पिता की छोटी नौकरी और साधारण रहन सहन को हितेन्द्र और उसकी धनवान बीवी अपने आलीशन बंगले और चमक दमक की जिन्दगी का हिस्सा नहीं बना सके । सम्भवत:इसीलिये हितेन्द्र ने अपनी जिन्दगी के उस गरीब हिस्से को आज इस गरीब से उजाड़ इलाके में दफन कर दिया। मैंने मन ही मन हितेन्द्र को हजार गालियां दीं और थाटीपुर पर ऑटो रुकवाया । आस पास देखा तो बड़ा ही गरीब सा इलाका था । टूटे-फूटे से छोटे-छोटे टीन के शेडनुमा मकान । कीचड़ से भरी नालियां, इधर उधर फेले कचरे के ढेर और उनमें से उठती बदबू, रात का धुंधलका उस माहौल को डरावना और अजीब सा बना रहा था। मन घिनिया गया । इस बुढ़ापे में कैसे दिन गुजारते होगें बेचारे। मैंने घड़ी देखी । शाम का धुंंधलका रात से मिलने की तैयारी में दौड़ा चला आ रहा था । इधर उधर एक दो लोगों से पूछा । ओना-पोना उनका हुलिया भी बताया तो एक बच्चा मुझे शेड नं 3 के दरवाजे पर खड़ा छोड़ गया कि वो बाबा यहीं रहते हैं। बाबा सुनकर आश्र्चय हुआ कि अभी भी लोगों को बाबा,चाचा जैसे शब्द याद रहते हैं । दरवाजे के सामने खड़े होकर सोचता रहा । धीरे से खटखटाया तो एक कांपती,कराहती सी आवाज आई -
`` कौन है ``
`` जी...मैं।``
`` अरे भई ।`` आवाज में चिड़चिड़ाहट साफ गूंज रही थी मानो वह आवाज़ अब किसी से भी मिलना नहीं चाहती, किसी से भी बात नहीं करना चाहती ।
साहस जुटा मैंने धीमे से आवाज लगाई -`` प्रसाद बाबूजी! ´´ मैं जानता था कि यह संबोधन सुन वह जरूर समझ जायेंगे कि मैंने ही उन्हें आवाज़ लगाई है। मेरे अलावा दो चार लोग ही थे जो उन्हें इस नाम से पुकारा करते थे। अन्दाजा सही निकला, दरवाजा खुला तो सामने वही थे । देखकर धक्का सा लगा । तन्दुरूस्त तो वह कभी ही नहीं रहे । मगर इतनी मायूसी, उदासी और बुझी आंखे, जिनमें कोई चमक नहीं। कोई उंमग नही । जिन्दगी की कोई किरण नहीं । ऐसा चेहरा उनका पहली ही बार सामने आया । मानो वह एक पुराने खण्डहर हों जिसकी ईंटें एक एक कर ढह रही हों। आंखे मिचमिचाते हुये उन्होंने कहा-`` कौन...सुकान्त हो क्या `` झुककर पैर छूते हुये मन्द स्वर में मैंने कहा-`` जी! वही हूं,ठीक पहचाना।´´
`` अरे बेटा! तू यहां कैसे आ गया ´´ आवाज में विस्मय के साथ विरक्तता, जैसे अपनी पहचान छुपाते-छुपाते कोई किसी को पहचान ले ।
`` जी बाबूजी, बस ऐसे ही। पता लगा कि आप यहां रहते हैं तो मिलने की इच्छा हो आई आप तो हमें भूल ही गये, लगता है।´´
`` अरे नहीं! खैर आओ अन्दर आओ, बैठो, आओ यहां बैठो ।´´ एक टूटी कुर्सी की तरफ इशारा कर वो खाट पर बैठ गये। इधर-उधर नज़रे दोड़ीं तो स्पष्ट ही दिख गया कि वह किस हाल में रह रहे हैं,तिलमिलाकर मेरे मुंह से निकल ही तो गया कि-`` चार दिन पहले में राजनगर गया था सो वहीं हितेन्द्र।``
`` अच्छा,वहां गये थे । हितेन्द्र से मिले होंगे तो उसने बताया होगा है ना र्षोर्षो चलो उसकी शान शौकत तुमने भी देख ली।´´ मेरे स्वर में छुपे गुस्से को नकार उन्होंने अपनी बात की स्वीकरोति मुझसे चाही। मैं उनके चेहरे में उभर आये बाप के चेहरे को पढ़ने लगा जो शायद नहीं चाहता था कि किसी को पता भी लगे कि हितेन्द्र ने उनके साथ कैसा व्यवहार किया । अब हालत यह थी कि मैं उन्हें यह भी नहीं बता सकता था कि हितेन्द्र ने मेरे साथ क्या किया। पर उनकी हालत देख मन भर आया तो मैंने उनसे कह ही दिया-`` बाबूजी, इस उम्र में तो आपको हितेन्द्र के साथ ही रहना चाहिये था, यहां कहां।´´
`` हां बेटा! बात तो सही कहते हो,मगर बुढ़ापा ऐसी गोन्द होता है जिससे पुराना समय और पुराना शहर दोनों हीं नहीं छोड़े जाते हैं ।``,
`` लेकिन फिर भी...।``
`` नही बेटा, अब इस उमर में कहीं ओर जगह पर मेरा मन नहीं लगता। अपना शहर अपना ही होता है । अपने पुराने मोहल्ले में किराये का मकान नहीं मिला तो मैं यहां आ गया वैसे मैं रहा तो था । कुछ दिनों के लिये उनके यहां,दोनों ने खूब सेवा की, बाबूजी, आपके लिये ये, बाबूजी आपके लिये वो और हां बड़ा आदर सम्मान मिला बेटा। आत्मा तृप्त हो गई और अब तो चलाचली की बेला है। अपने शहर मेेंं आंख बन्द हो अपने लोगों के बीच, बस यही बहुत है। ´´ आसमान की ओर हाथ उठा दोनों हाथ जोड़कर वह बोले। मैं अपलक देख रहा था उस बूढे को, जो अपने आहत आत्मसम्मान की रक्षा के लिये भरसक प्रयत्न कर रहा थौ। चेहरे पर मुस्कान थी लेकिन सूखी आंखों में रुके आंसुओं का सैलाब मैं देख सकता था जो दिल के अन्दर कहीं गिर रहा होगा ।
`` खैर छोड़ो, तुम सुनाओ, हितेन्द्र कैसा है, कैसी खातिर करी उसनेे तुम्हारी, ठीक से तो मिला ना।´´ आवाज में सवाल से ज्यादा आशंका थी ।
`` वो! हां, बहुत बहुत अच्छे से मिला, मुझे देखते ही खुश हो गया, अपने घर भी लेकर गया।´´ अटकते स्वर में मेरे मुंह से निकला ।
`` अच्छा।``
``सच, बाबूजी! मैं तो समझ रहा था कि अब हितेन्द्र बहुत बदल गया होगा लेकिन वह तो वैसा का वैसा ही है,पहले जैसा ।`` हम दोनो मौन हो गये बात करने को जैसे कुछ बचा ही न हो, एक दूसरे को कनखियों से तौल रहे थे कि किसका पलड़ा भारी है। आखिर दोनों ही तो अपने अपने टूटे, आहत आत्मसम्मान को बचाने की कोशिश कर रहे थे। मुझसे रहा नहीं गया तो झटके से उठ खड़ा हुआ और मुंह फेरकर भीगी आवाज में बोला-`` चलता हूं बाबूजी, अभी जल्दी है ।´´ मानो उन्हें भी इन्तजार हो कि मैं जल्दी ही चला जांऊ उठते हुये वह बुदबुदाये- `` फिर आना बेटा।`` जबान तो यही कह रही थी मगर नज़र कह रही थी -मत आना बेटा। मैं तेज कदमों से चल दिया दूर कहीं लाउडस्पीकर में गाना बज रहा था -``हम भी हैं तुम भी हो।´´ और मैं सोचता चला जा रहा था कि आज हमारे तुम्हारे आत्मसम्मान को बचाने में दोस्त हार गया और एक बूढ़ा बाप जीत गया। उसके इस प्रयास को मैंने प्रणाम किया और अपनी भीगी आंखें पोंछ लीं।

शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

मिलने की तरह मिलना-

एक चांद बचा के रखना
मेरे लिए ढेरों सितारे
सूरज बचा के रखना
आकाश में बरसात के दिनों में
कभी कभार दिखने वाला
इंदधनुष भी बचा के रखना
पूरा बाग बगिया न सही
किसी पोथी पानडे में
बरसों रखा एक फूल बचा के रखना
एक बच्चे की किलकारी
बचाना जरूर
चुटकी दो चुटकी ही सही
उम्मीद का कभी न छोड़ना संग
लाखों लाख शिद्दतों में भी
बचा के रखना उसे भी
अपने और मेरे लिए
विध्वंस के बावजूद
नामुराद हत्यारों से बचाना
बिदा मत होने देना
अपने चेहरे की जीवंत मुस्कान
मिलना मुझसे ठीक ठीक
मिलने की तरह मिलना ।
00
नरेन्द्र गौड़
4,रवीन्द्रनाथ टैगौर मार्ग
नीमवाड़ी,शाजापुर मप्र
मोबाइल नं 9826548861

रविवार, 8 नवंबर 2009

नरेन्द्र गौड़ की कविताएं


अभिताभ नहीं हूं मैं

कि आप देवियों सज्जनों
मेरे स्वास्थ्य लाभ के लिए
प्रार्थना में जुट जाएं
फिल्में अधर में
निर्माता बेचारों के सौ करोड़
लटक जाए इतना तो नहीं
अभिताभ हूं मैं ।
पच्चीस करोड़ रूपए की लागत से
बन रही ''तीन पत्ती '' में
मैने नहीं किया काम
''शू बाइट '' में भी नहीं
'अलादीन ' में हर्गिज नहीं
पेट है लेकिन उसमें भूख के वक्त
मुआ मरोड़ उठता है
इसलिए नहीं कि आप देवियों सज्जनों
सिजदे में झुक जाएं
फिलवक्त ऐसा कुछ हुआ
सरकारी अस्पताल सलामत है
जहां डाक्टर मेरे स्वागत में नहीं
अपनी मांगों के लिए नारे लगा
हड़ताल करते मिलेंगे
माफ कीजिएगा अभिताभ नहीं हूं
इसीलिए कम्पाउण्डर ने दो गोलियां
चाय से गटकवा हाथा जोड़
बड़े शहर के अस्पताल में कूच करने की सलाह दी
इतलौती एम्बूलेंस के बारे में पता चला
वह बड़े डाकसाब के परिवार को
पिकनिक पर ले गई है।
ऐसा भी अभिताभ होने से
क्या फायदा देवियों सज्जनों
थिएटर डीवीडी के दर्शकों
आपको रोता बिलखता छोड़
मैं मरने लगू और आईसीयू में
भरती किए जाने के बजाए
बोलेरो वाले से हाथा जोड़ी के बीच
विकल्प हो भी क्या सकता है
सिवा मेरे मर जाने के ।
अभिताभ नहीं बन कर मैंने ठीक किया
यदि खुदा के फजल से अभिताभ
हो गया होता तो मेरे गुजरने पर
ऐश्वार्याजी की आंखें रो रो टपक पड़ती
यह अभिताभ को ही गंवारा नहीं
तब भला मुझ नाचीज को कैसे होता
अतएव अभिताभ नहीं होने का
फैसला अंततोगत्वा सुखद रहा
देवियों सज्जनों मेरा अभिताभ होना
उक्त हालात की वजह से मुल्तवी रहा ।
00

बराक ओबामा से मेरी मुलाकात

कल रात मैंने पहले अमेरिकी अश्वेत
राष्टपति बराक ओबामा से मुलाकात की
उन्हें शानदार जीत पर बधाई दी
उम्मीद करते हुए कि वह भारत के
अच्छे दोस्त साबित होंगे
वैश्विक मंदी के दौर से सभी को
उबारेंगे और आउटसोंर्सिंग को लेकर
अपना रूख नरम करते हुए
देश की बेरोजगारी दूर करेंगे ।
भारत को खैरात बांटने के मामले में
ओबामा से मेरा कहना था..
वह जरा भी कोताही नहीं करते।
साथ ही कहा कश्मीर समस्या
उनके कार्यकाल के दौरान सुलझाली जाए
तीसरी दुनिया के देशों में
हथियारों की होड़ाहोड़ी के बजाए
भूख गरीबी फटेहाली की
चिंता कीजिए ओबामा ।
दुनिया से आतंकवाद के खात्में की
जारी रहना चाहिए लड़ाई ।
मेरी बातों को वह बहुत
ध्यान से सुन रहे थे हालांकि
उनके पास वक्त की कमी थी
ओबामा से मुलाकात के दौरान
जिन मुद्दों को शामिल किया
उनकी फैहरिस्त लम्बी थी
और भावुकता भरे
क्षण भी आए इस बीच
लौटते वक्त ओबामा ने
मेरी पत्नी और दो बेटियों के
बारे में पूछा साथ ही
यह भी कि हायरसेकेण्डरी कर चुका
आपका बेटा क्या
कर रहा है इन दिनों ।
गिफ्ट में दिया ओबामा ने
बहुत सा सामान जो रह गया
वापसी की हड़बड़ी के कारण
वाइट हाउस में
सुबह अजान के समय नींद खुलने पर
मेरी हथेली में ओबामा से
हाथ मिलाने की गरमाहट थी

मुंडेर पर बैठे कौए ने कहा
बाबू यह सुबह सुबह का सपना था ।
00
योगाभ्यास

सर्दियों में सुबह सबेरे
अपनी बीस बाई बीस फुटी छत पर
कुछ कसरत वसरत करने लगा हूं
चतुर पड़ोसनें मुझे पट्टेदार चड्डी में
पता नहीं क्यों नंगा पुतंगा मान
भड़ाभड़ बंद कर लेती
अपने घरों के दरवाज़े खिड़कियां
उनके पति देव भी बंद कर
चिल्लाने लगते हैं

टीवी पर बाबा रामदेव भले ही
लंगोटी पहिने और बगली के बाल
साफ किए बिना कई बार इनकी तरफ
अपनी बाई आंख भी मार दिया करते हैं
उन्हें तो यही पड़ोसनें शातिर
मुस्कान समेत पचा जाती है
मेरी बड़ी बड़ी दाढ़ी नहीं
तो भी क्या हुआ
पतंजली के जमाने से चली आ रही
यौग पद्धतियां क्या केवल
इन बाबों चाबों के बाप की बवौतियां है
हाथों को ऊपर उठाने का
कठिन आसन करते समय दूर
एक हवाई जहाज को आता देख
मैं शरमा गया कि आखिर
क्या सोचते होंगे विदेशों से आ रहे
राष्टपति प्रधानमंत्री और उनका लाबाजमा
दूरबीन से देख रहे हो
यही कि दिल्ली हवाई अड्डे पर तो
कटोरा लिए खड़े ही होंगे अनेकों
लेकिन यह भुखमरता
जिसके तन पर लत्ता तक नहीं
अभी से भीख मांगे चला आ रहा है।

पता-.
नरेन्द्र गौड़
4,रवीन्द्रनाथा टैगोर मार्ग
नीमवाड़ी,शाजापुर मप्र
मोबाइल नं 9826548961

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

ऊषा प्रारब्ध की कविताएं


शब्द और भाषा के पहले

मैं कई बार
यही सोचती हूं कि
सृष्टि में जब पहली बार मिले होंगे
आदम और हव्वा तो
कैसे उन्होंने
बगैर शब्दों
बगैर भाषा
एक दूसरे को समझाए होंगे अपने सुख देख और
किस कदर
वे दौनों
चकित हुए होंगे
चांद तारों झरनों पहाड़ो आसमान में
इन्द्रधनुषी रंगों को देखकर वे झूम उठे होंगे
मंजर कई सारे और भी देखें होंगे उन्होंने साथ साथ
मसलन,शाख से
पत्ते का टूटना
कोंपल का लहलहाना इनमें
महसूस किया होगा जीवन को
बगैर शब्द बगैर भाषा वे
परिभाषित करते रहे अपना युग
हमसे बेहतर युग में थे आदम और हव्वा
हमारे पास
शब्द,भाषा,समझ,सोच,सबकुछ फिर भी
क्यों इतना कठिन है
जीवन
समय और आज का
आदमी
सोचती हूं निःशब्द हो जाती हूं
कई कई बार मैं इतनी सी
इसी बात पर
00
घोंसला

सांझ होते ही वह बंया
जिसके लिए लौट रही है
उसे वहां नहीं पाया तो
कितनk रोएगी वह
कहां कहां नहीं भटकेगी
मारे डर के इधर उधर

सर छुपाने लायक हमारी तरह वे भी
ज़रा सी जगह

कितनी मेहनत से
बनाया करते हैं

अपने ड्राइंग रूम में सजाने हम है कि
उनके घोंसले उठा लाया करते हैं ।
00
क्वार में

क्वार में लगते ही दादी गांव का
कच्चा घर लीपने छाबने को किस कदर
भिड़ जाया करती थी
उतावली इतनी कि घर भर में से
किसी की बाट जोहे बगैर अकेले ही
मोटे मोटे लदेडे,फोड़ेती लीपणा,छाबती लीपती
बामुश्किल
निसरनी पर चढे भीतें,चांद्या छाबती लीपती
सबसे पहले वह रादणी लीपती फिर कोठरी
परेण्डीवाली और गलियारे के बाद बैठक
अंधेरी ओसरी,तुलसीक्यारी,आंगन
ढोरकोठा,ओटला ओटली लीपणे से महक उठते थे
सब छाव लीपकर वहां चोक पूरती,अक्षत चढ़ाती
दीया जलाती तब कहीं दादी
फुर्सत में नास्का सूंघते बतियाने
बाखल में जा बैठती
जमाना हुआ दादी को गुजरे साथ ही कच्चे घरों
छाबने लीपने का दौर भी नदारद हुआ अब
बाखल ही नहीं गांव भर में चूना सीमेन्ट
ईटों वाले घर है जिनमें रहते हुए हमें
पता ही नहीं चलता कभी का लग चुका
महीना क्वार का
0

नरेन्द्र गौढ़ की कवितायें -पुस्तक -इतनी तो है जगह से


देह का संगीत

वह अंतिम बार
मेरे सीने से लगी
सर्द रातें
साये के बिना बारिश
तपती धूप में
वह याद आई ।
मुझे सुन रही होगी
इस वक्त भी
किसी के सीने से सटी
मैं सितार नहीं
सरोद नहीं
सारंगी नहीं
बंसी नहीं
फिर भी
बजने से पहले
अनंत तक उसके लिए
देह मचलती रही ।
00
ढेरों काम
ढेरों काम
पड़े हैं उसके पास
टी वी देखना
स्वेटर बुनना
तीसरी मंजिल तक
पानी की बाल्टी पर
बाल्टी बन हांफना
कविता सुनने की
उसे फुर्सत नहीं ।
उसने सबक रटा
एक मेमने के
गले में
बस्ता लटकाया
कंकरीली सड़क पर
निकल गई ।
मुझे छोड़ गई
दाल में करछुली
हिलान को ।
अब सोच रहा प्याज
कतरते हुए
उसके पैर में
चप्पल डाली कि नहीं ।
00
गणेश
इनकी चार भुजाएं
ये लंबी सूंड
इत्ता भारी पेट
चलते होंगे किस तरह
आले में बैठे हैं
धूल के बीच ।
मैंने उससे पूछा
वह आंसू टपकाती रही
अतीत में रही किसी व्यथा से
अपनी करूणा में ।
अंधेरे में उसे टटोलते
मुझे अचानक लगा
यह अंगुली उसकी नहीं
अगरबत्ती के किसी कारखाने से
अभी कुछ देर पहले लौटी
एक औरत की है
जो मुझे एक बिलात दूर सोई
अब हिचकियां लेने लगी ।
सूंड और दो पैर उठाए
मैं हाथी था अपनी हताशा में
चिंघाड़ता पूरा जंगल था
उस रात सन्नाटे में
फटकारे जा रहे असंख्य सूप
दिशाओं में उड़ रहा धान ।
हवाओं की चादर तनी थी
समेट रही करोड़ों अंगुलियां
भरे थर पस के पस
भूसे बगदे बालियों से घिरा मैं ।
मुंह ढांपे एक
गरीब सपना था
मेरी चारपाई पर ।
झुर्रियोंदार अंतरिक्ष तक
फटा प़ड़ा था
भूख का पेट ।
नृत्य करते मोदक बांद आए
हारे थके उसके आले में अब
आ बैठs गणेश ।
मैं रोज़ अगरबत्ती सा
सुलगता हूं
उसकी फटी बिवाई वाली आंखों में ।

बुधवार, 4 नवंबर 2009

मुझे तलाश है ऐसे लेखक की जिसमें इन्सान हो

आज़ादी के बाद हिन्दी साहित्य में आ रहे परिवर्तन में सबसे खास परिवर्तन खेमेबाजी है । शक्तिसम्पन्न और बौद्धिक संवर्ग ने अपने अपने अलग अलग खेमे बना लिए है । इन अलग अलग खेमों में बंटे लेखकों और कवियों की विचारधारा भी अलग अलग ही है । बौद्धिक और शक्तिसम्पन्न लेखकीय समुदाय ने अपने खेमे से पृथक किसी अन्य को लेखक मानने से ही इन्कार कर दिया है। उत्तर आधुनिक लेखक अब तक पूर्णतः आधुनिक नहीं हुए है किन्तु वे सारे के सारे उत्तर औधुनिक का अलाप,अलाप रहे हैं । रचनात्मकता में विचारधारा के सम्मोहन का तड़का लगाया जा रहा है । उत्तर आधुनिक के नाम पर काव्य और गद्य में भी अकाव्यात्मकता एवं अगद्यात्मकता का पुट लगाया जा रहा है । इस तरह की रचनाएं की जा रही है,जिसका सामान्य पाठक वर्ग से कोई सारोकार नहीं है । खेतों में काम करनेवाले,सड़क किनारे काम करनेवाले मजदूर,कारखानों में कार्यरत वर्कर्स अगद्यात्मक और अकाव्यात्मकता को आत्मसात करने में असमर्थ तो है ही साथ ही इस प्रकार की रचनाओं से न तो व्यक्ति को,न परिवार को, न समाज को और ना ही देश को लाभ पहुंचता है। हां,रचनाकार अवश्य ही खेमेबाजी में बाजी मारकर अनावश्यक तौर पर पुरस्कार सम्मान प्राप्त कर ले जाते है । इसका भी कारण है,उत्तर आधुनिक के नाम पर रचनाकार खेमों के ही सम्पादकों और आलोंचकों को खुश करने के लिए लिखते हैं । उत्तर आधुनिकता के नाम पर लिखा जानेवाला साहित्य न तो समाज के और न ही देश के हित में है । मैं यहां किसी की आलोचना या निन्दा नहीं कर रहा और ना ही अपने गाल बजा रहा हूं किन्तु वास्तविकता यही है कि एक शक्तिसम्पन्न वर्ग सामान्य पाठकों के सामने केवल बौद्धिक कचना परोसकर वाह वाही लुटने में संलग्न है ।
भवानी प्रसाद ने लिखा है,रचना इस तरह से लिखी जानी चाहिए,जिस तरह से रचनाकार सरल होता है । रचनाकार कठिन होगा तो रचना भी कठिन होगी और उसका जनता,समाज या देश से प्रत्यक्षतः कोई सरोकार नहीं होगा । आज यही हो रहा है । यही कारण है कि समाज बौद्धिकता से उब कर सिनेमा की ओर जा रहा है । पुस्तकें नहीं बल्कि टीव्ही और सिनेमा का क्रेज बढ़ता जा रहा है ।......------------------.आज स्थिति दयनीय हो गई है। एक खेमे का रचनाकार दूसरे खेमे के रचनाकार को बरदाश्त नहीं करता । इतना ही नहीं प्रसिद्ध रचनाकारों का रवैया असामजिक हो गया है । माना जाता है कि लेखक.रचनाकार संवेदनशील होता है किन्तु यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि बौद्धिक लेखक संवेदनशील नहीं होता । इसे यों भी कहा जा सकता है कि एक अच्छा लेखक उतना अच्छा इन्सान नहीं होता,भले ही एक अच्छा इन्सान अच्छा लेखक न हो । एक अच्छा लेखक भले ही मिल जाए किन्तु वह एक अच्छा इन्सान हो,यह जरूरी नहीं है । एक कोई अवश्य ऐसा लेखक होगा किन्तु उसकी पहुंच उतनी अच्छी नहीं होगी जितनी उसे चाहिए । अच्छे लेखक के साथ अच्छा इन्सान होना बड़े सौभाग्य की बात है । आजकल के लेखक कवि रचनाकार इतने ज्यादा बौद्धिक हो गए है कि वे ज़मीन पर तो चलते ही नहीं है बल्कि वे आसमान में उड़ने लगते है । वे पत्रोत्तर देना अपनी तोहिन समझते हैं ।-------------.मैंने अब तक कई लेखको को पत्र लिखे हैं । उन्हें अपनी पुस्तकें भेजी है,दी है किन्तु दुःख की बात है कि उनमें से अब तक हरिवंशराय बच्चन,विष्णुप्रभाकर,कमलाप्रसाद,विजयबहादरसिंह आदि ने ही पत्रों का जवाब दिया बाकी किसी ने भी नहीं । यहां यह भी कहना उचित होगा कि भले ही उनकी सूची में मैं नहीं हूं । सूची में आने के लिए शायद उनकी शर्तें पूरी न कर पाया हूं । कई लेखक तो ऐसे है कि उनकी तारीफों में बड़े लेखकौं ने जाने कितने कशीदे रच डालें किन्तु उनमें लेखक तो है किन्तु उनमें इन्सान ही नहीं है ।

सोमवार, 14 सितंबर 2009

आटे से सने हुए हाथ--कविता -नरेन्द्र गौड़




तालाब को आना था

समुद्र चला आया

कविता में ।

गिद्ध नहीं आया

हांफती हुई चिड़िया

चली आई

फड़फड़ाने लगा पेड़

हरी भरी पत्तियां

गिरने ही थे..

कैसे बीन लेता अकेला

ढेर सारे फूल ।

माफ करना छोटी बिटिया को

चली आई

कविता में ।

अरी सुनती हो....

ज़ौर से आवाज़

लगी ही तो दी खुशी में

चली आई वह भी

आटे से सने हुए हाथ लिए

कविता में ।
0
डरी हुई दुनिया

उसने अपनी आंखें

डरी हुई दुनिया में खोली

उसने इत्मीनान से

अपना बस्ता खोला तब भी

डरी हुई दुनिया थी

उसके चारों तरफ

एक चाकलेट निकाली उसने

डरी हुई दुनिया को

बहलाने के लिए

रंगों की डिबिया भी

निकाल चुकी तब

उसने एक मरी हुई

तितली निकाली

उसका इरादा डरी हुई

दुनिया को और

डराने का नहीं था ।
0
बस्ता

समय हो गया

चलो घर चलें

स्कूल की घंटी

लगातार बज रही

तुमने मुझे कल

मोर का पंख

परसों इमली और

आज अपने हिस्से का

खाना दिया

ए दुबली पतली लड़की

ला मैं तरा

भारी भरकम

बस्ता उठा लूं।
0
टूटा बटन

मेरे कुर्ते का

टूटा बटन

टांकने के लिए आखिर

उसे सुई धागा नहीं मिला।

समय नहीं ठहरा

कुर्ते के टूटे बटन के लिए

अपनी जगह रही

मेरी तसल्ली

सुई धागा तलाशती वह

गहरे संताप में

वहीं छूट गई।

बिना बटन के ही

वह कुर्ता पहना

पहना इतना

आगे पहनने लायक

नहीं रहा।

मेरे पास वहीं एक

कुर्ता था

जिसकी जेब में

तमाम दुनिया को

रखे घुमता था।

रात को

मेरे सीने पर वह

सिर टिकाए रहती है

टूटा बटन खोजती अपनी

अंगुलियों के साथ।
0
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