गुरुवार, 5 नवंबर 2009

ऊषा प्रारब्ध की कविताएं


शब्द और भाषा के पहले

मैं कई बार
यही सोचती हूं कि
सृष्टि में जब पहली बार मिले होंगे
आदम और हव्वा तो
कैसे उन्होंने
बगैर शब्दों
बगैर भाषा
एक दूसरे को समझाए होंगे अपने सुख देख और
किस कदर
वे दौनों
चकित हुए होंगे
चांद तारों झरनों पहाड़ो आसमान में
इन्द्रधनुषी रंगों को देखकर वे झूम उठे होंगे
मंजर कई सारे और भी देखें होंगे उन्होंने साथ साथ
मसलन,शाख से
पत्ते का टूटना
कोंपल का लहलहाना इनमें
महसूस किया होगा जीवन को
बगैर शब्द बगैर भाषा वे
परिभाषित करते रहे अपना युग
हमसे बेहतर युग में थे आदम और हव्वा
हमारे पास
शब्द,भाषा,समझ,सोच,सबकुछ फिर भी
क्यों इतना कठिन है
जीवन
समय और आज का
आदमी
सोचती हूं निःशब्द हो जाती हूं
कई कई बार मैं इतनी सी
इसी बात पर
00
घोंसला

सांझ होते ही वह बंया
जिसके लिए लौट रही है
उसे वहां नहीं पाया तो
कितनk रोएगी वह
कहां कहां नहीं भटकेगी
मारे डर के इधर उधर

सर छुपाने लायक हमारी तरह वे भी
ज़रा सी जगह

कितनी मेहनत से
बनाया करते हैं

अपने ड्राइंग रूम में सजाने हम है कि
उनके घोंसले उठा लाया करते हैं ।
00
क्वार में

क्वार में लगते ही दादी गांव का
कच्चा घर लीपने छाबने को किस कदर
भिड़ जाया करती थी
उतावली इतनी कि घर भर में से
किसी की बाट जोहे बगैर अकेले ही
मोटे मोटे लदेडे,फोड़ेती लीपणा,छाबती लीपती
बामुश्किल
निसरनी पर चढे भीतें,चांद्या छाबती लीपती
सबसे पहले वह रादणी लीपती फिर कोठरी
परेण्डीवाली और गलियारे के बाद बैठक
अंधेरी ओसरी,तुलसीक्यारी,आंगन
ढोरकोठा,ओटला ओटली लीपणे से महक उठते थे
सब छाव लीपकर वहां चोक पूरती,अक्षत चढ़ाती
दीया जलाती तब कहीं दादी
फुर्सत में नास्का सूंघते बतियाने
बाखल में जा बैठती
जमाना हुआ दादी को गुजरे साथ ही कच्चे घरों
छाबने लीपने का दौर भी नदारद हुआ अब
बाखल ही नहीं गांव भर में चूना सीमेन्ट
ईटों वाले घर है जिनमें रहते हुए हमें
पता ही नहीं चलता कभी का लग चुका
महीना क्वार का
0

नरेन्द्र गौढ़ की कवितायें -पुस्तक -इतनी तो है जगह से


देह का संगीत

वह अंतिम बार
मेरे सीने से लगी
सर्द रातें
साये के बिना बारिश
तपती धूप में
वह याद आई ।
मुझे सुन रही होगी
इस वक्त भी
किसी के सीने से सटी
मैं सितार नहीं
सरोद नहीं
सारंगी नहीं
बंसी नहीं
फिर भी
बजने से पहले
अनंत तक उसके लिए
देह मचलती रही ।
00
ढेरों काम
ढेरों काम
पड़े हैं उसके पास
टी वी देखना
स्वेटर बुनना
तीसरी मंजिल तक
पानी की बाल्टी पर
बाल्टी बन हांफना
कविता सुनने की
उसे फुर्सत नहीं ।
उसने सबक रटा
एक मेमने के
गले में
बस्ता लटकाया
कंकरीली सड़क पर
निकल गई ।
मुझे छोड़ गई
दाल में करछुली
हिलान को ।
अब सोच रहा प्याज
कतरते हुए
उसके पैर में
चप्पल डाली कि नहीं ।
00
गणेश
इनकी चार भुजाएं
ये लंबी सूंड
इत्ता भारी पेट
चलते होंगे किस तरह
आले में बैठे हैं
धूल के बीच ।
मैंने उससे पूछा
वह आंसू टपकाती रही
अतीत में रही किसी व्यथा से
अपनी करूणा में ।
अंधेरे में उसे टटोलते
मुझे अचानक लगा
यह अंगुली उसकी नहीं
अगरबत्ती के किसी कारखाने से
अभी कुछ देर पहले लौटी
एक औरत की है
जो मुझे एक बिलात दूर सोई
अब हिचकियां लेने लगी ।
सूंड और दो पैर उठाए
मैं हाथी था अपनी हताशा में
चिंघाड़ता पूरा जंगल था
उस रात सन्नाटे में
फटकारे जा रहे असंख्य सूप
दिशाओं में उड़ रहा धान ।
हवाओं की चादर तनी थी
समेट रही करोड़ों अंगुलियां
भरे थर पस के पस
भूसे बगदे बालियों से घिरा मैं ।
मुंह ढांपे एक
गरीब सपना था
मेरी चारपाई पर ।
झुर्रियोंदार अंतरिक्ष तक
फटा प़ड़ा था
भूख का पेट ।
नृत्य करते मोदक बांद आए
हारे थके उसके आले में अब
आ बैठs गणेश ।
मैं रोज़ अगरबत्ती सा
सुलगता हूं
उसकी फटी बिवाई वाली आंखों में ।

बुधवार, 4 नवंबर 2009

मुझे तलाश है ऐसे लेखक की जिसमें इन्सान हो

आज़ादी के बाद हिन्दी साहित्य में आ रहे परिवर्तन में सबसे खास परिवर्तन खेमेबाजी है । शक्तिसम्पन्न और बौद्धिक संवर्ग ने अपने अपने अलग अलग खेमे बना लिए है । इन अलग अलग खेमों में बंटे लेखकों और कवियों की विचारधारा भी अलग अलग ही है । बौद्धिक और शक्तिसम्पन्न लेखकीय समुदाय ने अपने खेमे से पृथक किसी अन्य को लेखक मानने से ही इन्कार कर दिया है। उत्तर आधुनिक लेखक अब तक पूर्णतः आधुनिक नहीं हुए है किन्तु वे सारे के सारे उत्तर औधुनिक का अलाप,अलाप रहे हैं । रचनात्मकता में विचारधारा के सम्मोहन का तड़का लगाया जा रहा है । उत्तर आधुनिक के नाम पर काव्य और गद्य में भी अकाव्यात्मकता एवं अगद्यात्मकता का पुट लगाया जा रहा है । इस तरह की रचनाएं की जा रही है,जिसका सामान्य पाठक वर्ग से कोई सारोकार नहीं है । खेतों में काम करनेवाले,सड़क किनारे काम करनेवाले मजदूर,कारखानों में कार्यरत वर्कर्स अगद्यात्मक और अकाव्यात्मकता को आत्मसात करने में असमर्थ तो है ही साथ ही इस प्रकार की रचनाओं से न तो व्यक्ति को,न परिवार को, न समाज को और ना ही देश को लाभ पहुंचता है। हां,रचनाकार अवश्य ही खेमेबाजी में बाजी मारकर अनावश्यक तौर पर पुरस्कार सम्मान प्राप्त कर ले जाते है । इसका भी कारण है,उत्तर आधुनिक के नाम पर रचनाकार खेमों के ही सम्पादकों और आलोंचकों को खुश करने के लिए लिखते हैं । उत्तर आधुनिकता के नाम पर लिखा जानेवाला साहित्य न तो समाज के और न ही देश के हित में है । मैं यहां किसी की आलोचना या निन्दा नहीं कर रहा और ना ही अपने गाल बजा रहा हूं किन्तु वास्तविकता यही है कि एक शक्तिसम्पन्न वर्ग सामान्य पाठकों के सामने केवल बौद्धिक कचना परोसकर वाह वाही लुटने में संलग्न है ।
भवानी प्रसाद ने लिखा है,रचना इस तरह से लिखी जानी चाहिए,जिस तरह से रचनाकार सरल होता है । रचनाकार कठिन होगा तो रचना भी कठिन होगी और उसका जनता,समाज या देश से प्रत्यक्षतः कोई सरोकार नहीं होगा । आज यही हो रहा है । यही कारण है कि समाज बौद्धिकता से उब कर सिनेमा की ओर जा रहा है । पुस्तकें नहीं बल्कि टीव्ही और सिनेमा का क्रेज बढ़ता जा रहा है ।......------------------.आज स्थिति दयनीय हो गई है। एक खेमे का रचनाकार दूसरे खेमे के रचनाकार को बरदाश्त नहीं करता । इतना ही नहीं प्रसिद्ध रचनाकारों का रवैया असामजिक हो गया है । माना जाता है कि लेखक.रचनाकार संवेदनशील होता है किन्तु यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि बौद्धिक लेखक संवेदनशील नहीं होता । इसे यों भी कहा जा सकता है कि एक अच्छा लेखक उतना अच्छा इन्सान नहीं होता,भले ही एक अच्छा इन्सान अच्छा लेखक न हो । एक अच्छा लेखक भले ही मिल जाए किन्तु वह एक अच्छा इन्सान हो,यह जरूरी नहीं है । एक कोई अवश्य ऐसा लेखक होगा किन्तु उसकी पहुंच उतनी अच्छी नहीं होगी जितनी उसे चाहिए । अच्छे लेखक के साथ अच्छा इन्सान होना बड़े सौभाग्य की बात है । आजकल के लेखक कवि रचनाकार इतने ज्यादा बौद्धिक हो गए है कि वे ज़मीन पर तो चलते ही नहीं है बल्कि वे आसमान में उड़ने लगते है । वे पत्रोत्तर देना अपनी तोहिन समझते हैं ।-------------.मैंने अब तक कई लेखको को पत्र लिखे हैं । उन्हें अपनी पुस्तकें भेजी है,दी है किन्तु दुःख की बात है कि उनमें से अब तक हरिवंशराय बच्चन,विष्णुप्रभाकर,कमलाप्रसाद,विजयबहादरसिंह आदि ने ही पत्रों का जवाब दिया बाकी किसी ने भी नहीं । यहां यह भी कहना उचित होगा कि भले ही उनकी सूची में मैं नहीं हूं । सूची में आने के लिए शायद उनकी शर्तें पूरी न कर पाया हूं । कई लेखक तो ऐसे है कि उनकी तारीफों में बड़े लेखकौं ने जाने कितने कशीदे रच डालें किन्तु उनमें लेखक तो है किन्तु उनमें इन्सान ही नहीं है ।

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कृष्णशंकर सोनाने दूरभाषः 07554229018,चलितवार्ताः 09424401361 Email:drshankarsonaney@yahoo.co.uk प्रकाशित कृतियां-वेदना,कोरी किताब,बौराया मन,संवेदना के स्वर,दो शब्दों के बीच,धूप में चांदनी,मेरे तो गिरधर गोपाल,किशोरीलाल की आत्महत्या,निर्वासिता..गद्य में उपन्यास.1.गौरी 2.लावा 3.मुट्ठी भर पैसे 4.केक्टस के फूल 5.तलाश ए गुमशुदा,....आदिवासी लोक कथाएं,कुदरत का न्याय.बाल कहानी संग्रह,क्रोध,